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तदिन्न्व॑स्य सवि॒तुर्नकि॑र्मे हिर॒ण्ययी॑म॒मतिं॒ यामशि॑श्रेत्। आ सु॑ष्टु॒ती रोद॑सी विश्वमि॒न्वे अपी॑व॒ योषा॒ जनि॑मानि वव्रे॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tad in nv asya savitur nakir me hiraṇyayīm amatiṁ yām aśiśret | ā suṣṭutī rodasī viśvaminve apīva yoṣā janimāni vavre ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तत्। इत्। नु। अ॒स्य॒। स॒वि॒तुः। नकिः॑। मे॒। हि॒र॒ण्ययी॑म्। अ॒मति॑म्। याम्। अशि॑श्रेत्। आ। सु॒ऽस्तु॒ती। रोद॑सी॒ इति॑। वि॒श्व॒मि॒न्वे इति॑ वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वे। अपि॑ऽइव। योषा॑। जनि॑मानि। व॒व्रे॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:8 | अष्टक:3» अध्याय:2» वर्ग:24» मन्त्र:3 | मण्डल:3» अनुवाक:3» मन्त्र:8


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - जो (अस्य) इस (सवितुः) सूर्य्य की प्रगटता से उत्पन्न हुए प्रकाश के सदृश (याम्) जिस (हिरण्ययीम्) सुवर्ण आदि बहुत रत्नों से युक्त (अमतिम्) उत्तम शोभायुक्त लक्ष्मी को (योषा) स्त्री (अपीव) इकट्ठा की गई सी (जनिमानि) जन्मों को (वव्रे) स्वीकार करती और (सुष्टुती) उत्तम प्रशंसा से (विश्वमिन्वे) सर्वत्र व्यापक (रोदसी) प्रकाश और पृथिवी के सदृश राजा और प्रजा के व्यवहारों का (नु) निश्चय (आ, अशिश्रेत्) आश्रय करै (तत्) वह (इत्) ही (मे) मेरे (नकिः) नहीं हुई ॥८॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे चन्द्र आदि लोक सूर्य के प्रकाश का आश्रय करके उत्तम शोभित देख पड़ते हैं और जैसे स्त्री स्नेहपात्र अपने प्रिय और उत्तम लक्षणों से युक्त पति को प्राप्त होकर सन्तानों को उत्पन्न करके आनन्द करती है, वैसे ही पृथिवी के राज्य को प्राप्त होकर दुःखों से रहित हुए राजजन निरन्तर आनन्द करैं ॥८॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

योऽस्य सवितुः सकाशाद्दीप्तिमिव यां हिरण्ययीममतिं योषापीव जनिमानि वव्रे सुष्टुती विश्वमिन्वे रोदसी न्वाशिश्रेत्तदिन्मे नकिर्माभूत् ॥८॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तत्) (इत्) (नु) (अस्य) सूर्य्यस्येव (नकिः) निषेधे (मे) मम (हिरण्ययीम्) हिरण्यादिबहुधनयुक्ताम् (अमतिम्) सुरूपां लक्ष्मीम् (याम्) (अशिश्रेत्) आश्रयेत् (आ) (सुष्टुती) सुष्ठुप्रशंसया (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजाव्यवहारौ (विश्वमिन्वे) विश्वव्यापिके (अपीव) समुच्चिता इव (योषा) भार्या (जनिमानि) जन्मानि (वव्रे) वृणोति ॥८॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यथा चन्द्रादयो लोकाः सूर्य्यप्रकाशमाश्रित्य सुशोभिता दृश्यन्ते यथा स्त्री हृद्यं स्वप्रियं शुभलक्षणान्वितं पतिं प्राप्य सन्तानान् जनयित्वाऽऽनन्दति तथैव पृथिवीराज्यं प्राप्य नष्टदुःखाः सन्तो राजानः सततमानन्देयुः ॥८॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे चंद्र इत्यादी गोल सूर्याच्या प्रकाशामुळे शोभून दिसतात व जशी स्त्री हृद्य व स्वप्रिय शुभलक्षणयुक्त पती प्राप्त करून संतानांना उत्पन्न करून आनंदी होते तसेच पृथ्वीचे राज्य प्राप्त करून दुःखांनीरहित होऊन राजजनांनी आनंद प्राप्त करावा. ॥ ८ ॥